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चलो गीत / कुमार रवींद्र

बहुत दिनों
इधर-उधर भटक लिये
चलो गीत, अब तो घर लौट चलें
 
वहाँ, सुनो, जंगल है - घाटी है
अपनी पगडंडी भी
खुला-खुला नीला है आसमान
मंदिर की झंडी भी
 
उम्र हुई
सडकों पर मरे-जिये
चलो गीत, अब तो घर लौट चलें
 
पुरखों की देहरी है
सुरज-चाँद भी अपने
छोटे ही सही
किन्तु जो भी हैं
सच्चे हैं सुख-सपने
 
हैं तुलसीचौरे पर
जले दिये
चलो गीत, अब तो घर लौट चलें

नदी-घाट हैं
जिन पर देवता नहाते हैं
कबिरा के दोहे-पद
लोग रोज़ गाते हैं
 
यहाँ रोज़
हमने हैं ज़हर पिये
चलो गीत, अब तो घर लौट चलें