भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चलो चल कर वहीं पर बैठते हैं / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:08, 20 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> चलो चल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो चल कर वहीं पर बैठते हैं
जहां पर सब बराबर बैठते हैं

न जाने क्यों घुटन सी हो रही है
बदन से चल के बाहर बैठते हैं

हमारी हार का ऐलान होगा
अगर हम लोग थक कर बैठते हैं

तुम्हारे साथ में गुज़रे हुए पल
हमारे साथ शब भर बैठते हैं

बताओ किस लिये हैं नर्म सोफ़े
क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं

तुम्हारी बे हिसी बतला रही है
हमारे साथ पत्थर बैठते हैं