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चलो छिया-छी हो अन्तर में / माखनलाल चतुर्वेदी

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चलो छिया-छी हो अन्तर में!
तुम चन्दा
मैं रात सुहागन

चमक-चमक उट्ठें आँगन में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

बिखर-बिखर उट्ठो, मेरे धन,
भर काले अन्तस पर कन-कन,
श्याम-गौर का अर्थ समझ लें

जगत पुतलियाँ शून्य प्रहर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

किरनों के भुज, ओ अनगिन कर
मेलो, मेरे काले जी पर
उमग-उमग उट्ठे रहस्य,

गोरी बाँहों का श्याम सुन्दर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

मत देखो, चमकीली किरनो
जग को, ओ चाँदी के साजन!
कहीं चाँदनी मत मिल जावे

जग-यौवन की लहर-लहर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

चाहों-सी, आहों-सी, मनु-
हारों-सी, मैं हूँ श्यामल-श्यामल
बिना हाथ आये छुप जाते

हो, क्यों! प्रिय किसके मंदिर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

कोटि कोटि दृग! मैं जगमग जो-
हूँ काले स्वर, काले क्षण गिन,
ओ उज्ज्वल श्रम कुछ छू दो

पटरानी को तुम अमर उभर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

चमकीले किरनीले शस्त्रों
काट रहे तम श्यामल तिल-तिल
ऊषा का मरघट साजोगे?

यही लिख सके चार पहर में?
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

ये अंगारे, कहते आये
ये जी के टुकडे, ये तारे
`आज मिलोगे’, `आज मिलोगे',

पर हम मिलें न दुनिया-भर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!