http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A5%8B_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%AE&feed=atom&action=historyचलो / कुमार मंगलम - अवतरण इतिहास2024-03-28T08:11:32Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A5%8B_/_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%AE&diff=263816&oldid=prevसशुल्क योगदानकर्ता ५: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मंगलम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2019-06-22T13:43:56Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार मंगलम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
{{KKCatKavita}}<br />
<poem><br />
चलो<br />
कि चलने का वक्त है<br />
<br />
चलो की चलते जाना है<br />
चले चलो कि<br />
मंजिल अभी नहीं आयी है<br />
<br />
राह है कि पता नहीं<br />
पर चलो<br />
<br />
चलो पर देखो कि<br />
जिस राह पर चल रहे हो<br />
वह किस ओर जाती है<br />
<br />
हत्या हो तो चलो<br />
मर जाओ तो चलो<br />
चलो जब झूठ अपनी सारी हदें पार कर जाये<br />
चलो किसी मृतकभोज में<br />
चलो किसी उत्सव में और दो कौर उठाओ<br />
<br />
चलते चलो कि मंजिल करीब नहीं<br />
तुम्हारे उद्धार के लिए कोई भागीरथी नहीं<br />
चलो चलो कि <br />
चलते चले जाना है<br />
मर जाना है<br />
जीते जीते<br />
या मरते मरते भी चले जाना है<br />
<br />
चलो कि हमारी कोई मंजिल नहीं<br />
बस चलो.<br />
<br />
हवा से चलते-फिरते माँग लिया एक श्वांस<br />
आग से थोड़ी गर्मी मांग ली<br />
अन्न से माँग लिया भोजन<br />
फल से थोड़ा सा हिस्सा ले लिया उधार<br />
और फूल से गंध<br />
<br />
जीवन में जीते हुए<br />
दुराशा से मांग ली थोड़ी लापरवाही<br />
प्रत्याशाओं ने घेरा<br />
और मुझे अकर्मण्य बना दिया<br />
<br />
पहाड़, नदियाँ, प्रकृति आदि ने<br />
मुझे दिया खुलेपन का उपहार दिया<br />
मैं यूँ ही जीता गया<br />
परजीवी होकर, उधार का खाया<br />
उधार का जिया<br />
उधार का हिसाब बन गया समंदर<br />
एक दिन समंदर के लहर ने<br />
दरवाजा खटखटाया<br />
और कहा मेरे उधार को चुकता करो<br />
<br />
कैसे चुकता करता<br />
दुब की नोक भर हरियाली<br />
दिए का टिमटिमाता प्रकाश<br />
अंधेरे के गान का शोर<br />
उजास की शांति<br />
यह मेरे अकेलेपन, असमंजस की कथा<br />
अकुलाहट में सहम कर चुप हुआ<br />
<br />
बंद हुए सब दरवाजे<br />
हर आहत का खटका<br />
सूदखोर के आने का संकेत<br />
<br />
यूँ भाग-भाग और डर-डर कर<br />
उधार हुआ अपना जीवन<br />
मैं रहा कृतघ्न<br />
मैं मरा अकेले<br />
प्यार विहीन<br />
<br />
उस उधार के बदले<br />
दे देता…<br />
</poem></div>सशुल्क योगदानकर्ता ५