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चलो / शैलजा पाठक

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चलो, सोने से पहले जागते हैं
चाँद के चरखे पर
मुहब्बत का सूत कातते हैं...

मुँह उठाये पहाड़ों को
पहना आते हैं बरफ़ की सफ़ेद टोपी
नदियों की शोखी को
किनारों से बाँध आते हैं

हवा में बिखेर देते हैं
तमाम सवाल मलाल
सडकों को तेज दौड़ाते हैं

रोजी रोटी कपडे की
फिक्र को उघने देते है

कुछ देर अपने मन को भी
जीने देते हैं

उधड़े सपनों को
सीने देते हैं...