भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चल-चित-पारद की दंभ केंचुली कै दूरि / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:46, 16 अप्रैल 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर' |संग्रह=उद्धव-शतक / जगन्नाथ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चल-चित-पारद की दंभ केंचुली कै दूरि
ब्रज-मग धूरि प्रेम-मूरि सुभ-सीली लै ।
कहै रतनाकर सु जोगनि बिधान भावि
अमित प्रमान ज्ञान-गंधक गुनीली लै ॥
जारि घट अन्दर हीं आह-धूम धारि सबै
गोपी बिरहागिनि निरन्तर जगीली लै ।
आए लौटि ऊधव भव्य बिभूति भायनि की
कायनि की रुचिर रसायन रसीली लै ॥104॥