भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चल ततइया ! / कुँअर बेचैन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:38, 18 नवम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँअर बेचैन }} {{KKCatNavgeet}} <poem> कुछ काले को...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ काले कोट कचहरी के ।

ये उतरें रोज़ अखाड़े में
सिर से भी ऊँचे भाड़े में
पूरे हैं नंगे झाड़े में

ये कंठ-लंगोट कचहरी के ।

बैठे रहते मौनी साधे
गद्दी पै कानूनी पाधे
पूरे में से उनके आधे-

हैं आधे नोट कचहरी के ।

छलनी कर देते आँतों को
अच्छे-अच्छों के दाँतों को
तोड़े सब रिश्ते-नातों को

ये हैं अखरोट कचहरी के ।