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चाँद-दराँती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ - अवतरण इतिहास
2024-03-29T07:31:32Z
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वीरबाला: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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<p><b>नया पृष्ठ</b></p><div>{{KKGlobal}}<br />
{{KKRachna<br />
|रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
[[Category:हाइकु]]<br />
<poem><br />
331<br />
बीते जो साल<br />
काँटों भरा था जंगल<br />
हाल-बेहाल।<br />
332<br />
दर्द आया है,<br />
इसीलिए तय है<br />
चला जाएगा ।<br />
333<br />
मुश्किलें लाते<br />
दर्द ऐसे अतिथि<br />
देर में जाते ।<br />
334<br />
चाँद-दराँती <br />
काटे रात भर<br />
मेघों का खेत ।<br />
335<br />
डाँटे जीभर<br />
ये गुस्सैल बिजली<br />
नभ में दौड़े।<br />
336<br />
भिड़ते मेघ<br />
मरखने साँडों-से<br />
नभ कुचलें।<br />
337<br />
मन पावन<br />
अमृत से है भरा<br />
तृप्त जीवन।<br />
338<br />
मन सागर<br />
व्याकुल हैं लहरें<br />
कभी न सोएँ ।<br />
339<br />
झुका है सर<br />
खुद बखुद जहाँ<br />
मन्दिर वहाँ ।<br />
340<br />
सिर झुकाया<br />
जब बुत के आगे<br />
तू याद आया।<br />
341<br />
सिर टिकाएँ,<br />
किसके काँधे पर,<br />
आँसू बहाएँ !<br />
342<br />
ख़त्म हैं मेले,<br />
सूनी हुई गलियाँ,<br />
हम अकेले !<br />
343<br />
कितना छल !<br />
वे ही बने क़ातिल<br />
पोसे जो कल।<br />
344<br />
ख़ाली हैं हाथ,<br />
परछाई है साथ,<br />
साथी न कोई ।<br />
345<br />
दूर उजाला<br />
शायद तुम ही हो<br />
कब आओगे ?<br />
</poem></div>
वीरबाला