भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँद अकेला है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


सूने अम्बर में मेरा चाँद अकेला है।
हिचकी ले रही हवा ये कैसी बेला है।

आँसू भीगी पलकें, उलझी हैं अब अलकें
आँसू पोंछे ,सुलझा दे अब हाथ न सम्बल के

उलझन में हरदम जीवन छूटा मेला है।

सन्देश सभी खोए,किस बीहड़ जंगल में
हूक- सी उठती है ,रोने को पल पल में।

पीड़ाएँ अधरों पर आकरके सोती हैं
बीती बातें भी यादों में आ रोती हैं।

पलभर को रुका नहीं आँसू का रेला है ।