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चाँद चौरा का मोची / अनुज लुगुन

चाँद चौरा का मोची
चाँद की टहनी पर अटका है
वह कभी भी गिर सकता है अनंत अमावस्या की रात में
कितनी अजीब बात है कि चाँदनी रात के लिए भी
उसके पास वही औजार होते हैं
जिनसे वह दिन में लोगों के जूते चमकता है
सचमुच वह सनकी कलाकार है वह कला की बातें नहीं जानता
वह चमड़े से घिरा रहता है और भूख के पैबन्दों को सीता है
मैं जब भी चाँद चौरा की तरफ निकलता हूँ
मेरे सामने महाबोधि होता है और पीठ पीछे बिष्णुपद मंदिर
इन्हीं के बीच में वह हमेशा मिलता है मुझसे मेरे जूते माँगते हुए
उसकी आँखें कमजोर हो गयी हैं, हाथ काँपते हैं
फिर भी वह अपने हुनर की जिद पकड़ कर रखता है
कभी कभी वह अपनी जाति की बात ईमान से कह जाता है
कहता है चाँद चकोर की बातें हमसे न कहना बाबू
बहुत बदरंग हैं ये कितने किस्से सुनोगे इसके
क्या तुम नहीं जानते शम्बूक के सर के ऊपर आसमान के चाँद को
क्या तुम बेलछी, लक्ष्मणपुर-बाथे नहीं जानते
बहुत भोले मत बनना बाबू
हमको चाँद चौरा में चाँदनी नहीं जूते मिलते हैं
सचमुच सनकी मोची है वह कला नहीं जानता
बात-बात में उसने मेरी जात जान ली है
तिरछे मुस्का कर कहता है तुम तो मेरी बिरादरी के निकले
तुम चाँद की खाल निकालते हो कविता से
और मैं भी एक दिन चाँद के चमड़े का जूता बनाऊंगा |
12/4/18