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चाँद ज़रा जब मद्धम-सा हो जाता है / गौतम राजरिशी

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चाँद ज़रा जब मद्धम-सा हो जाता है
अम्बर जाने क्यूँ तन्हा हो जाता है

चोट लगी है जब-जब नींद की रूहों को
ज़िस्म भी ख़्वाबों का नीला हो जाता है

तेरी गली में यूँ ही आते-जाते बस
ऐसा-वैसा भी कैसा हो जाता है

उसके फोन की घंटी पर कमरा कैसा
लाल-गुलाबी रंगीला हो जाता है

येल्लो पोल्का डॉट दुपट्टा तेरा उड़े
तो मौसम भी चितकबरा हो जाता है

अलबम का इक-इक फोटो जाने कैसे
शब को नॉवेल का पन्ना हो जाता है

तेरी-मेरी नज़रों का बस मिलना भर
मेरे लिये वो ही बोसा हो जाता है

उस नीली खिड़की के पट्टे का खुलना
नीचे गली में इक क़िस्सा हो जाता है

इश्क़ का ‘ओएसिस’ हो या हो यादों का
“धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है”

मैं तो यूँ ही बुनता हूँ ग़ज़लें अपनी
नाम का तेरे क्यूँ हल्ला हो जाता है