चाँद मुझे है भाए अम्माँ
रोज़ शाम को लिए रोशनी
मेरे घर में आए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ
जब साँझ थोड़ी-सी ढल जाती है
सब घर बत्ती जल जाती है
तब मेरी सूनी कुटिया में
बन के बत्ती आए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ
चाँद न पूछे जात कभी भी
छुआछूत की बात कभी भी
जैसा पंडित ठाकुर के घर
मेरे घर भी आए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ
नहीं जानता भेदभाव यह
सबसे मिलता प्रेमभाव से
नहीं कहीं है ऊँच-नीच
ये सबको समझाए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ
मुझे भूख जब लग जाती है
और तू रोटी ना लाती है
तब चाँद बन कर रोटी
मेरा जी ललचाए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ
पर ये मेरी समझ न आए
जो सबको रोशन कर जाए
उसकी अपनी ही काया में
किसने इतने दाग बनाए?
जब भी देखूँ उसे गौर से
आँख मेरी भर आए अम्माँ
चाँद की काया के ज़ख़्मों में
जीवन मेरा दिख जाए अम्माँ
चाँद मुझे है भाए अम्माँ