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चाँद मेरा सोया था ओढ़े ऐसे चादर मलमल की / सादिक़ रिज़वी

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चाँद मेरा सोया था ओढ़े ऐसे चादर मलमल की
रुख़ पर बिखरी ज़ुल्फें जैसे छाई घटा हो बादल की

मारो काटो आग लगा दो शोर था बरपा गलियों में
अब तक कोई जान न पाया शह्र में वजहें हलचल की

ऐशो इशरत की धारा में क्योंकर आज न बह जाएँ
किसने देखा कल है यारो किसको ख़बर है इक पल की

पाकर दौलत भूल गया भगवान् को उसके भक्तों को
क्योंकर आखिर वक़्त में समझा अहमीयत गंगाजल की

जो मदहोश नशे के आलम में रहता है शामो-सहर
क़ुलक़ुल की आवाज़ भली लगती है उसको बोतल की

सड़कें नदियाँ लगने लगी थीं वो थी क़यामत की बारिश
शह्र , मोहल्ले और घरों की हालत हो गयी जल थल की

इक साए का साथ न हो तो दम घुट जाए वहशत से
जान की दरपै सांय सांय आवाज़ें हैं जंगल की

बचपन की यादों को क्योंकर मैं भूलूंगा पीरी में
अब भी ऐसा लगता है कि बातें हों जैसे कल की

वह ज़हनी मफ़्लूज हैं 'सादिक़' बेबहरा इदराक से हैं
जो शायर की फ़िक्र को देते आये सनद हैं पागल की