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चाँद से हौले-हौले चलो / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

चाँद से हौले-हौले चलो!
प्राण में रस का सागर लिए, किरण-सी बाँहे खोले चलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

शून्य में चिर एकाकी रहो,
किसी को निज अभाव मत कहो,
जेठ, अगहन या भादों मास-प्राण के अपने रस पर पलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

जहाँ हो खड़े, वहीं पर हँसो,
घनों से खेलो, पर मत फँसो!
आँधियाँ चलें कि हो हिम-पात-दूध-धोए-धोए निकलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

अधर पर स्निग्ध हास ले सरस-
सोम-रस दो प्राणों का बरस!
जेठ की गर्मी जितनी कड़ी बर्फ से शीतल बन मर गलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

सहन कर कटु अनुभव के ग्रहण-
बढ़ाते चलो नेह के चरण!
क्षितिज ही आ जोयगा पास, व्यर्थ मत दुश्ंिचता में जलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

विश्व को पहुँचा कर उस ओर-
जिधर होता कंचन का भोर-
सभी को करते मौन प्रणाम, दूर, एकान्त द्रुमों में ढलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!

दुखों में जलता सारा विश्व-
तुम्हारा माँग रहा अस्तित्व,
अस्त होकर भी यदि हो सके-दूब के मोती बन कर फलो!
चाँद से हौले-हौले चलो!