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चांदनी मुस्कुराते हुए चुप रही / राकेश खंडेलवाल

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किसकी अँगड़ाई से है उगी भोर ये, ढल गई रात, जब सब लगे पूछने
चांदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने

पाँव का नख, जहाँ था कुरेदे जमीं देखिये अब वहाँ झील इक बन गई
कुन्तलों से उठी जो लहर, वो संवर निर्झरों में सिमटती हुई ढल गई

धूप मुस्कान की छू गई तो कली, अपने यौवन की देहरी पे चढ़ने लगी
जब नयन की सुराही झुकी एक पल, प्यालियों में स्वयं ही सुधा ढल गई

आपके इंगितों से बँधा है हुआ, सबसे आकर कहा सावनी मेह ने
चांदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने

आपके कंगनो की खनक से जुड़ी तो हवा गीत गाने लगी प्यार के
आपकी पैंजनी की छमक थाम कर मौसमों ने लिखे पत्र मनुहार के

चूम कर हाथ की मेंहदी को गगन साँझ सिन्दूर के रंग रँगने लगा
बँध अलक्तक से प्राची लिखे जा रही फिर नियम कुछ नये रीत व्यवहार के

आप जब रुक गये, काल रथ थम गया किस तरफ़ जाये सबसे लगा बूझने
किसकी अँगड़ाई से है उगी भोर ये, ढल गई रात अब सब लगे पूछने