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चांद से नाराज़ हूँ मैं, चांद है मुझ से ख़फ़ा / विनय कुमार

चांद से नाराज़ हूँ मैं, चांद है मुझ से ख़फ़ा।
देखिए अब क्या निकलता है सुलह का रास्ता।

चांदनी का चांद ने सौदा किया मैं चुप रहा
चांद ग़ैरों से बुरा मैं भी कहाँ अपना हुआ।

ख़त्म होगा एक दिन गूंगे अंधरों का सफ़र
चांदनी से पूछिएगा ज़ुर्म था किसका बड़ा।

रोशनी जैसी हँसी, ताज़ा गुलाबों सा वज़ूद
वस्ल से ज़्यादा हसीं है यह महकता फ़ासला।

एक ही ख्वाहिश कि मेरे बाद सब पूछें सवाल
आग के दरबार में पानी सरीखा कौन था।

चाहते हो वापसी तो छोर पर लटके रहो
अब नहीं होता सियासत के सफ़े पर हाशिया।

सांस की मानिंद मामूली हवा के साथ है
रोज़ पड़ता है ग़ज़ल का आँधियों से साबका।

वक़्त की रफ़्तार में खोयी रदीफे़ जिंदगी
आइये मिलकर बचायें धड़कनों का काफ़िया।