Last modified on 1 अप्रैल 2011, at 23:31

चांद / महेन्द्र भटनागर

.
चांद आसमान में निकल रहा,
श्याम रूप रात का बदल रहा !
.
  मुँह पुनीत प्यार से भरा हुआ,
मन सरल दुलार से भरा हुआ,
.
आ रहा किसी सुदेश से अभी,
मंद - मंद मुसकरा रहा तभी !
.
साथ रोशनी नयी लिए हुए,
वेश मौन साधु-सा किए हुए ;
.
नींद का संदेश भेजता हुआ ,
स्वप्न भूमि पर बिखेरता हुआ,
.
  दूर के पहाड़ से सरक-सरक,
झूल पेड़-पेड़ में, झलक-झलक,
.
  और है न ध्यान, खेल में मगन,
सिर्फ़ एक दौड़ की लगी लगन !
.
आसमान चढ़ रहा बिना रुके,
ढाल औ' चढ़ाव पर बिना झुके !
.
  चांद का बड़ा दुरूह काज है,
  व्योम का तभी न चांद ताज है !