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चारिम खण्‍ड / भाग 5 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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बुद्धिमान हनुमान फानि कऽ,
चढ़ला देखितहि उँच पहाड़।
देखलनि एक कंदरा उपर,
पक्षी गण करइत किलकार।
बुझलनि ओतए पानि अछि निश्चय,
सभकें बजा लेला तहिठाम।
पानि देखि हर्षित मन सबहक,
पैसि गेला लए रामक नाम।
देखल एक पैद्य अछि पोखरि,
कमल फुलायल ढ़ेरक ढ़ेर।
मुदा पानि पीबएसँ पहिने,
अघटित घटना घटल अन्हेर।
शब्द भेल आदेशक श्वरमे,
जुनि क्यो पीबू पोखरिक पानि।
पहिने दीअऽ अपन सभ परिचय,
नहि तऽ मरब ई निश्चय मानि।
हनुमान सब कथा सुनओल,
छल जे बीतल पछिला बात।
आगाँ केर सेहो सभ कहलनि,
जोहि रहल छी सीता मात।
पोखरि कात बनल छल मन्दिर,
बैसल छली ताहिमे एक।
दिव्य स्वरूप स्वयंप्रभा,
नहि कहल जाए छल तेज ततेक।
सुनितहिं कथा राम केर बजली,
खाउ तोड़फल पीबू पानि।
आब ने किछु संकोच करक अछि,
ग्रहण करू एकरा निज मानि।
भए संतुष्ट पुनः सभ आएला,
स्वयंप्रभा कहलनि निश्चित अछि
देता सफलता रघुकुल केतु।
अज्ञा दऽ इहो पुनि कहलनि,
मूनि लिअऽ सभ निज निज आँखि।
जगकर्ता धर्ता श्रीरामक,
सगुन रूपकें मनमे राखि।
कयलनि जेना कहलथिन देवी,
स्वयंप्रभकेर देवी बात।
खोलितहिं आँखि सभक सभ देखलनि,
सभ क्यो छला समुद्रक कात।
एही समुद्रक ओहि पार छल,
लंका पति रावण केर राज।
लगला करए विचार स्वयंमे,
कोना हैत आगाँ केर काज।
एतबेमे सभके सभ सुनलनि,
आयल हमरा पुष्ट अहार।
छी हम भूखल बहुत दिवस सऽ,
मेटल सभटा पेटक भार।
सुनितहि भेला बानरादि सभ,
मृत्युक भयसँ अधिक सशंक।
कोन विपति आबि अछि घेरल,
नेने छल सभकें अभिचंक।
जामवंत कयलनि बुधियारी,
उठा जटायुक विविध प्रसंग।
लगला हुनकर यशकें गावए,
जेना राम हित तजलनि अंग।
सनितहि सम्पाती छल चौंकल,
छला जटायु सहोदर भ्रात।
बात बूझि सभ जामवंतसँ,
लगलनि उर जनु बज्राघात।
पुनि सम्पाती सिंधु तीर जा,
देल तिलाँजलि नोर बहाए।
आबि तहाँ सऽ कयल प्रदर्शित,
नेह, कहल सभ बात बुझाए।
छथि अशोक वनमे मां सीता,
देखि रहल छी अपना आँखि।
लए अतिबहुँ निज बल हुनका हम,
मुदा निर्बल छी नहि अछि पाँखि।
सिंधुपार कए जायब लंका,
तखनहि होयत सभटा सिद्ध।
दए आशीष सफल होमय हित,
गेला स्वगृह सम्पाती गिद्ध।
छल नहि छोट समस्या सिंधुक,
विस्तृत छल ओ योजन चारि।
देखा देखा निज बलक परिधिकें,
बैसि गेला सभ मनकें मारि।
जामवंत पुनि पाछाँ उठला,
हनुमानक बलकेर यश गाबि।
कहलनि सबल अहींटा छीजे,
सफल करब कृप रामक पाबि।
उद्यत भए सीता सुधि आनय,
चलला महावीर हनुमान।
पर्वत सम आकार बनौलनि,
हदय राखि रघुपति पग ध्यान।
आगाँ एक राक्षसी भेटलनि,
जलमे करइत छल ओ वास।
नभक मार्गसँ जे चलइत छल,
छाया देखि बनाबए ग्रास।
देव गणक अनुमतिसँ सुरसा,
अएली हनुमत केर समक्ष।
लेब परीक्षा बल बुद्धिक छल,
पओलानि हनुमकें अति दक्ष।
हनुमानहुँकें देखि राक्षसी,
कयलक माया केर उपयोग।
किन्तु हनुमत मारल मुक्का,
मेटा गेलै धरणी केर भोग।
पहुँचि लेला तट पार समुद्रक,
झट चढ़ला परवत छल एक।
शोभा देखि मुग्ध भए रहला,
इन्द्रपुरी छल तुच्छ अनेक।
सुन्दर सुन्दर महल बनल छल,
पथ प्रकाश अति सय अभिराम।
चारू दिश स्वर्णक देवाल छल,
छल चारू दिश सिंधु सुनाम।
नगर प्रवेश करक हित हनुमत,
धयलनि रूप अपन अछि छोट।
तैयो की लंकिनी राक्षसी,
नहि कयलक हुनका पर चोट।
मारल एक मुष्टि श्रीहनुमत,
रक्त वमन कए भेल पथार।
पुनि उठिकए कर जोरि सुनौलक,
पूर्व कथा सहित विस्तार।
ब्रह्माजी केर मुँहसँ सुलनहुँ,
जखन बनौलनि लंका राजं