चारोंदस भोन जाके रवा एक रेनु को सो,
सोई आजु रेनु लावै नन्द के अवास की ।
घट-घट शब्द अनहद जाको पूरि रह्यो,
तैई तुतराइ बानी तोतरे प्रकास की ।
'आलम' सुकवि जाके त्रास तिहुँ लोक त्रसै,
तिन जिय त्रास मानी जसुदा के त्रास की ।
इनके चरित चेति निगम कहत नेति,
जानी न परत कछु गति अविनास की ।