भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चारों धाम नहीं / अजय पाठक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों में अब आदर्शों का कोई काम नहीं
वह भी राधा नहीं रही और हम भी श्याम नहीं।
सीतायें बंदी हैं अब तक उसके महलों में
रावण से जाकर टकरायें अब वो राम नहीं।

गोपालों से मिली गोपियाँ रास रचाती है
उन्मादों के इन रिश्तों का कोई नाम नहीं।
पंचाली को जकड़ रखा पापी दुर्योधन ने
अर्जुन का पुरुषत्व दिखाता कोई काम नहीं।

झूठ इबादत, बदी बंदगी धोखा अर्चन है
काबा-काशी इसके आगे चारो धाम नहीं।