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चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत-6 / विवेक निराला

कई-कई दिनों के जागे
हम चारों जो विफल अभागे
निश्चिन्त हो कर सोए
बहुत दिनों तक खोए-खोए
भावी जीवन के स्वप्नों में
उठे तो फिर भूख के साथ ।

हम अपने समय से
खाए हुए लात
करना चाहें अब
नए दिनों की बात
मगर अब भी मुश्किलें बहुत थीं ।

गाँधी अब महज़
एक मजबूरी का नाम था
ब्रह्मचर्य-नहीं वर्य
नपुंसक बनाता जो
अहिंसा के नाम पर
कनपटी पर तमाचे
ऐसे में कौन अब
गाँधी को बाँचे ।
मजबूरी का नाम था
पूरा विचार ही
लाचार और बेकाम था ।

अब उसके नाम पर
डोलता नहीं पत्ता
घिस-घिस कर नाम उसका
चोंथ-नोच डाली सत्ता
ये बदलाव के दिन
अलबत्ता...।

शक्तिपात
समय आपात
संवैधानिक अधिकार ही
करते आघात ।

लोहिया और जयप्रकाश
अन्धकार में हारे
व्यर्थ हो चुके जैसे
चिन्तक सब लस्त-पस्त
सँगठित आन्दोलन
हुए पथभ्रष्ट न्यस्त ।

नक्सलबाड़ी के
शहीद मज़दूर-किसान
आत्महत्या को विवश नौजवान
अधूरे ही रहे ख़्वाब
हर बार हर सवाल
रह जाता लाजवाब ।

शासक और सन्त
एकमेक हो गए
करते हुए घोषणा --
इतिहास का अन्त
विचारों का अन्त
हा हन्त ! हा हन्त !
कपिता का अन्त
प्रभु-महन्त !

जब ईश्वर बौराया
जंगल-जंगल भटके
जब आतँकी हत्यारे
उसके पीछे दौड़ें
जब ईश्वर को भी
मुश्किल से जान बचानी हो
जब भक्तों ने ही
तख़्तों की हठ ठानी हो
वह कठिन समय, हमारा समय ।

चमकता हुआ बाज़ार
लपलपाते हुए हथियार
लील लेने को तैयार
समूचा संसार ।

मरता हुआ मेसोपोटामिया
घुटता हुआ कोरिया, ईरान
लातीन अमरीका, दक्षिण अफ्रीका
भूखा इथोपिया
क्यूबा, वियतनाम
ऐसे ही कितने नाम ।

अतीत से बाहर
हमारा वर्तमान कितना भयावना
साम्राज्यवादी कर
गहते केश
गिरवी होता जाता
हमारा प्यारा देश ।

स्पेशल इकानामिक जोन
लखटकिया कार
मोबाइल फ़ोन
चिन्ता से बाहर
आटा, किरासिन, नोन
स्पेशल इकनामिक जोन ।

किसान बेज़मीन
अपने स्वत्व से हीन
होकर माँगते-फिरते मुआवज़ा
भीख की तरह ।
भोगने को अभिशप्त सज़ा
लाठियाँ, हत्या, बलात्कार
व्यापक नरसँहार
और एक आतँककारी मौन
स्पेशल इकानामिक जोन ।

रक्तपात और लूट
देख-देख, टूट-टूट
फिर से एक बार जुड़े,
हम जैसे बहुत लोग
भागते-फिरते हैं छिपे
ऐसे ही लोगों की गही बाँह
हम चारों दोस्तों को
सूझी एक नई राह
हम चारों साथ मुड़े ।