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चावल का पहाड़ / विनोद विक्रम केसी

दुस्वप्न की तरह खड़ा है चावल का पहाड़
जिसके आगे बिखर जाते हैं सारे स्वप्न
टूट जाता है हर इन्द्रधनुष
एक पतली लकड़ी की तरह

इसको कोसने में
मेरे बाप-दादा ने गंवा दी सारी उम्र
लेकिन मै कतई न करुँगा यह भूल

पहाड़ कभी नहीं था भयानक
उस आदमी ने इसे ऐसा बना दिया
बहुत मासूम था पहाड़
वह था अपने ही गर्भ में दबे खनिजों से बेखबर था
अपनी ऊँचाई की भव्यता से बेख़बर
उसकी यही मासूमियत ले डूबी उसे
उस आदमी के हाथों
पहाड़ लुटता रहा सदियौं तक

पहाड़ को खोखला कर देने के बाद
उस आदमी ने चोटी पर बनाया
चावल का एक विशाल गोदाम
और हमारे खेतों से
फ़सलें ग़ायब होने लगीं रातोंरात

मै जानता हूँ
नमक से भरे मर्माहत गीत
या ढेर सारे शिकवे
या आक्रोश का कोई बौखलाता हुआ तूफ़ान
ये सब नहीं बन सकते औजार
जो काम आ सकें
इस पहाड़ पर चढ़ते समय

इससे पहले कि भूख
मुझे इनसान से गिराकर बना दे जानवर
इससे पहले कि मै उस पशुता को प्राप्त हो जाऊँ
जिसके बाद विवेक घास बन जाता है
और घास विवेक
और पता नहीं चलता कौन किसको खा रहा है
मुझे पहुँचना होगा
इस पहाड़ की चोटी पर
और पकड़ना होगा उस आदमी का गरेबान

मै निकल चुका हूँ घर से ।