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चाहा बहुत के इश्‍क़ की फिर इब्तिदा न हो / 'बाकर' मेंहदी

चाहा बहुत के इश्‍क़ की फिर इब्तिदा न हो
रूसवाइयों की अपनी कहीं इंतिहा न हो

जोश-ए-वफ़ा का नाम जुनूँ रख दिया गया
ऐ दर्द आज ज़ब्त-ए-फु़गाँ से सिवा न हो

ये ग़म नहीं के तेरा करम हम पे क्यूँ नहीं
ये तो सितम है तेरा कहीं सामना न हो

कहते हैं एक शख़्स की ख़ातिर जिए तो क्या
अच्छा यूँ ही सही तो कोई आसरा न हो

ये इश्‍क़ हद-ए-ग़म से गुज़र कर भी राज़ है
इस कशमकश में हम सा कोई मुब्तला न हो

इस शहर में है कौन हमारा तेरे सिवा
ये क्या के तू भी अपना कभी हम-नवा न हो