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चाहे जितनी तुम लकीरें खींच लो नभ अंक पर / रंजना वर्मा

चाहे जितनी तुम लकीरें खींच लो नभ अंक पर।
किंतु मत खींचो धरा पर बंट न जाये अपना घर॥

है गगन निस्सीम इसका ओर क्या औ छोर क्या
बद्ध सीमित और मर्यादित हमारा घर मगर॥

फूल बन कर जंगलों के तुम बिखर जाओ यहाँ
मात्र उपवन के लिए तुम में नहीं है गंधवर॥

साँस में हर गन्ध मिट्टी की समायी सोच लो
टूट जायेगा वतन तो तुम भी जाओगे बिखर॥

मत निहारो तुम स्वयं को दूसरों की पीर बाँटो
दूसरों का घर सवाँरो विश्व जायेगा सँवर॥