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चिन्ता / प्रियदर्शन

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चिन्ताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं
नींद में भी घुसपैठ कर जाती हैं
धूसर सपनों वाले कपड़े पहन कर
जागते समय साथ-साथ चला करती हैं
कभी-कभी उनके दबाव कुछ कम हो जाते हैं
तब फैला-फैला लगता है आकाश,
प्यारी-प्यारी लगती है धूप
नरम-मुलायम लगती है धरती ।
लेकिन जब कभी बढ़ जाती हैं चिन्ताएँ
बाक़ी कुछ जैसे सिकुड़ जाता है
हवा भी भारी हो जाती है
साँस लेने में भी मेहनत लगती है
एक-एक क़दम बढ़ाना पहाड़ चढने के बराबर महसूस होता है ।

कहाँ से पैदा होती है चिन्ता ?
क्या हमारे भीतर बसे आदिम डर से ?
या हमारे बाहर बसे आधुनिक समय से ?
या हमारे चारों ओर पसरी उस दुनिया से
जो दरअसल टूटने-बनने के एक न ख़त्म होने वाले सिलसिले का नाम है ?
क्या निजी उलझनों के जाल से
या बाहरी जंजाल से
हमारे स्वभाव से या दूसरों के प्रभाव से ?

कभी-कभी ऐसे वक़्त भी आते हैं जब बिल्कुल चिन्तामुक्त होता है आदमी,
एक तरह के सूफ़ियाना आत्मविश्वास से भरा हुआ -- कि जो भी होगा निबट लेंगे
एक तरह की अलमस्त फक्कड़ता से लैस कि ऐसी कौन सी चिन्ता है जो ज़िन्दगी से बड़ी है,
कभी इस दार्शनिक ख़याल को जीता हुआ कि चिंता है तो ज़िन्दगी है ।
लेकिन ज़िन्दगी है इसलिए चिंता जाती नहीं ।
कुछ न हो तो इस बात की शुरू हो जाती है कि पता नहीं कब तक बचा रहेगा ये चिन्तामुक्त समय ।
बस इतनी सी बात समझ में आती है, आदमी है इसलिए चिन्ता है ।