भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चिराग़ जलते हैं / सूर्यभानु गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:49, 1 अप्रैल 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनके अंदर चिराग़ जलते हैं,
घर से बाहर वही निकलते हैं।

बर्फ़ गिरती है जिन इलाकों में,
धूप के कारोबार चलते हैं।

दिन पहाड़ों की तरह कटते हैं,
तब कहीं रास्ते पिघलते हैं।

ऐसी काई है अब मकानों पर,
धूप के पाँव भी फिसलते हैं।

खुदरसी उम्र भर भटकती है,
लोग इतने पते बदलते हैं।

हम तो सूरज हैं सर्द मुल्कों के,
मूड आता है तब निकलते हैं।