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चुनो / सुरेन्द्र रघुवंशी

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चुनो सभ्यजन चुनो !
गधों को चुनो !

हाँ, नहीं ढोएँगे भार वे अपनी जिम्मेदारियों का
चलेंगे मनमानी चाल
क्योंकि वे आपकी तरह नही सोचते

बल्कि गधे सोचते ही नहीं हैं
वे तो लतियाते हैं हमें
और मौक़ा मिलने पर
भाग जाते हैं दुम दबाकर
मिल गए मैदान में खूब मचाते हैं धमा-चौकड़ी

ढेंचू-ढेंचू की भाषा में शोर मचाएँगे
उद्धारक बनने के हज़ार क़िस्से गढ़ लेंगे
पर नहीं नहाएँगे मनुष्यता की सहज उपलब्ध नदी में
स्नान समय की बर्बादी है उनके लिए
वे सदैव डूवे रहेंगे अपने गधत्व के आनन्दमयी संसार में

रखवाली के लिए सौंप दी गई फ़सल को
ख़ुद ही चर जाएँगे समूल
फिर ऊल-जलूल बयानों की जुगाली करेंगे
लोट लगाएँगे धूल उड़ाएँगे
सम्वेदनाओं की दूब को कुचलते हुए
पैरों को धरती पर पटक-पटककर
वे कुरेदेंगे धरती के ज़ख़्म और उखाड़ेंगे गड़े मुर्दे

चुनो सभ्यजन चुनो !
गधों को चुनो !