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चेहरा चेहरा ज़ुल्फ़ का पहरा का रोना रोएँ क्या / राम अवतार गुप्ता 'मुज़्तर'

चेहरा चेहरा ज़ुल्फ़ का पहरा का रोना रोएँ क्या
जिस धरती पर धूप न उतरे उस धरती पर बोएँ क्या

दुनिया दुश्मन वक़्त मुख़ालिफ़ ऐसे में किस का आराम
करवट करवट ख़ार बिछे हैं फूलों पर फिर सोएँ क्या

अब के सामान ऐसा बरसा आग लगी गुलशन गुलशन
ख़ाक नशेमन झुलसी शाख़ें ज़ख़्मी ताएर धोएँ क्या

बहर-ए-आलम में पार उतरना जब मक़्सूम नहीं तो क्या
दरियाओं में आग लगा दें रेत में नाव डुबोएँ क्या

माना चलो शबनम रोती है तो गुल हँसते हैं ‘मुज़्तर’
तो क्या एक हँसी की ख़ातिर हम भी बैठ के रोएँ क्या