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"चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं / विजयशंकर चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं
 
बूढ़े मुस्कुराते थे मूछों में
 
बूढ़े मुस्कुराते थे मूछों में
 
 
हर युग की तरह
 
हर युग की तरह
 
 
इनमें से कुछ जाना चाहते थे बैकुंठ
 
इनमें से कुछ जाना चाहते थे बैकुंठ
 
 
कुछ बहुओं से तंग़ थे चिड़चिड़े
 
कुछ बहुओं से तंग़ थे चिड़चिड़े
 
 
कुछ बेटों से खिन्न
 
कुछ बेटों से खिन्न
 
 
पर बच्चे खेलते थे इनकी दाढ़ी से
 
पर बच्चे खेलते थे इनकी दाढ़ी से
 
 
और डरते नहीं थे
 
और डरते नहीं थे
 
 
दाढ़ी खुजलाते थे जुम्मन मियाँ
 
दाढ़ी खुजलाते थे जुम्मन मियाँ
 
 
तो भाँपता था मोहल्ला
 
तो भाँपता था मोहल्ला
 
 
नहीं है सब खैरियत
 
नहीं है सब खैरियत
 
 
पिचके चेहरों पर भी थीं दाढ़ियाँ
 
पिचके चेहरों पर भी थीं दाढ़ियाँ
 
 
छिपातीं एमए पास जीवन का दुःख
 
छिपातीं एमए पास जीवन का दुःख
 
 
दाढ़ीवाले छिपा लेते थे भूख और रुदन
 
दाढ़ीवाले छिपा लेते थे भूख और रुदन
 
 
कुछ ऐसे भी थे कि उठा देते थे सीट से
 
कुछ ऐसे भी थे कि उठा देते थे सीट से
 
 
और फेरते थे दाढ़ी पर हाथ
 
और फेरते थे दाढ़ी पर हाथ
 
 
बहुत थे ऐसे
 
बहुत थे ऐसे
 
 
जो दिखना चाहते थे बेहद खूँखार
 
जो दिखना चाहते थे बेहद खूँखार
 
 
और रखते थे दाढ़ी।
 
और रखते थे दाढ़ी।
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21:52, 9 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

चेहरे थे तो दाढ़ियाँ थीं
बूढ़े मुस्कुराते थे मूछों में
हर युग की तरह
इनमें से कुछ जाना चाहते थे बैकुंठ
कुछ बहुओं से तंग़ थे चिड़चिड़े
कुछ बेटों से खिन्न
पर बच्चे खेलते थे इनकी दाढ़ी से
और डरते नहीं थे
दाढ़ी खुजलाते थे जुम्मन मियाँ
तो भाँपता था मोहल्ला
नहीं है सब खैरियत
पिचके चेहरों पर भी थीं दाढ़ियाँ
छिपातीं एमए पास जीवन का दुःख
दाढ़ीवाले छिपा लेते थे भूख और रुदन
कुछ ऐसे भी थे कि उठा देते थे सीट से
और फेरते थे दाढ़ी पर हाथ
बहुत थे ऐसे
जो दिखना चाहते थे बेहद खूँखार
और रखते थे दाढ़ी।