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चोकर / रणविजय सिंह सत्‍यकेतु

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गाँव-गाँव में चक्की के आ जाने से
रस्मी हो गई ऊखल-समाठ
तुक-तुक, तुक-तुक की धुन में
जनानियाँ भूल गईं जँतसार
जाती रही चोकर की मिठास;

चालकर निकाले जाने से पहले तक
आटा ही होता है चोकर
उदर रोग के लिए महफ़ूज़
भूसी-कटकी ज़्यादा नहीं होती तो
बिना चाले आटा सान लेती थीं दादी-नानी
कहती थीं, ताकतवर होता है चोकर
देह बनाता है ठोस
और कलेजे को पुष्ट

कठौती पर चलनी रखकर
आटा चालने को तैयार
‘बुढ़बानी’ पर हँसतीं
नज़रें तिरछी करतीं बहुओं को
वैद्यजी का हवाला देतीं
गाय-भैंस के दूध बढ़ा देने का कारण बतातीं
और तो और, चोकर खाकर मजबूत हुए
बकरियों-छागरों के पुट्ठों (कूल्हों),
दमदार कल्लों (गर्दनों) का दम भरती थीं दादी-नानी

जिल्द के रूखेपन से दुःखी बेटियों को
गीला चोकर लगवाती थीं माँएँ
जिसके लिए अब ब्यूटीशियन भी हामी भरते हैं,
चर्मरोगों के संवाहक
बर्तन निखार पाउडरों-साबुनों से पहले
छठी-उपनयन
शादी-गौना
श्राद्ध-बरसी पर
भोज-भात के बाद
बड़े-बड़े और ज्यादा बर्तनों को चमकाने के लिए
मिट्टी, राख और रेत के साथ
चोकर का इस्तेमाल होता था,

आटा पीसतीं काकी-चाची जँतसार गातीं
तो आँगन में थिरकती थी संयुक्त सभ्यता
दरवाजे पर मुस्कान भरता तृप्ति का अहसास
आज भी जबकि भरे हुए हैं
अनाज के सरकारी गोदाम (!)
‘भोजन की सभ्यता’ ने हासिल किया है
ख़ास मुकाम
ख़ासी आबादी को तृप्त करने में
सक्षम है चोकर।