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चोट खाकर हम अभी संभले नहीं हैं / शिवम खेरवार

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चोट खाकर हम अभी संभले नहीं हैं,
रब! हमें क्यों घाव गहरे मिल रहे हैं।

स्वर हमारा क्षीण पड़ता जा रहा है,
दर्द दिल का और बढ़ता जा रहा है,
जो सही हिस्सा बचा था हाय! मन का,
पा बुरी दुर्गंध सड़ता जा रहा है,
घाव उतना बढ़ रहा जितना इसे हम सिल रहे हैं,
रब! हमें क्यों...

कोशिकाएँ संकुचन की चाह! कहतीं,
धमनियाँ बहते लहू की आह! कहतीं,
है बहुत दुष्कर उठाना पीर अब तो,
क्या यही भीषण प्रलय है? वाह! कहतीं,
भाव बहते घाव बन, किंचित अगर हम हिल रहे हैं,
रब! हमें क्यों...