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छंद 26 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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किरीट सवैया
(व्याज से वसंत-श्री का वर्णन)

नागर से हैं खरे तरु कोऊ, लिऐँ कर-पल्लव मैं फल-फूलन।
पाँवड़े साजि रहे हैं कोऊ, कोऊ बीथिन बीच पराग-दुकूलन॥
फूल झरैं ‘द्विजदेव’ कोऊ, पुर-कानन माँहिँ कलिंदजा-कूलन।
आगम मैं ऋतुराज के आज, सबै बिधि खोए सबै निज सूलन॥

भावार्थ: आज ऋतुराज के वन में पधारने से सब सांसारिक चिंता और क्लेश को खोकर-भूलकर नगरवासियों की नाईं (तरह) कोई वृक्ष अपने पल्लवरूपी हाथों में फल-फूल लिये उपहार को खड़े हैं; कोई वन-वीथियों में पुष्प-परागरूपी वस्त्र को विकीर्ण कर मानो पाँवड़े बिछाते हैं और कोई यमुना-तीर पर वनरूपी नगर में फूल गिराकर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं।