भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छब्बीस जनवरी आती है छब्बीस जनवरी जाती है / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:36, 18 नवम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छब्बीस जनवरी आती है छब्बीस जनवरी जाती है
लेकिन अपनी सूनी दुनिया तो सूनी ही रह जाती है ।

कुछ खील-बताशे होते हैं कुछ खेल-तमाशे होते हैं
जगमग दीवाली होती है रंगीन पटाखे होते हैं
महफ़िल जमती है यारों की हाथों में प्याले होते हैं
कुछ माल-मलीदे उड़ते हैं कुछ धूम-धड़ाके होते हैं ।
आनेवाले सुन्दर कल की झाँकी दिखलाई जाती है ।

लेकिन अपनी सूनी दुनिया तो सूनी ही रह जाती है ।
छब्बीस जनवरी आती है छब्बीस जनवरी जाती है ।।

भाषण सुनवाए जाते हैं वादे दुहराए जाते हैं
नंगी हथेलियों पर सरसों के खेत उगाए जाते हैं
झण्डे लहराए जाते हैं बाजे बजवाए जाते हैं
कालीन बिछाकर जलसों में कूल्हे मटकाए जाते हैं ।
सरकारी भाण्डों से अपनी तारीफ़ कराई जाती है ।

लेकिन अपनी सूनी दुनिया तो सूनी ही रह जाती है ।
छब्बीस जनवरी आती है छब्बीस जनवरी जाती है ।।

हम सारी बातें जान गए सच क्या है ये पहचान गए
आँखों में धूल झोंकने में माहिर हो तुमको मान गए
मेहनतकश सारे एक हुए अब उट्ठेंगे तूफ़ान नए
इन हँसिए और हथौड़ों से लिक्खेंगे अपने गान नए ।

लो स्वांग तुम्हारा खत्म हुआ अब अपनी बारी आती है ।
छब्बीस जनवरी आती है छब्बीस जनवरी जाती है ।।

रचनाकाल : नवम्बर 1980