भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छहरि रही है कं, लहरि रही है कं / राय कृष्णदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:18, 7 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राय कृष्णदास }} Category:पद <poem>छहरि रही है कं, लहरि रह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छहरि रही है कं, लहरि रही है कं,
रपटि परै त्यों कं सरपट धावै है।
उझकै कं, त्यों कं झिझकि ठिठकि जात,
स्यामता बिलोकि रोरी-मूंठनि चलावै है॥

कौंलन जगाइ, नीके रंग में डुबाइ, भौंर-
भीर को गवाइ, कितो रस बरसावै है।
केसर की माठ भरे, कर पिचकारी धरे,
पूरब-सुबाला होरी भोर ही मचावै है॥