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छाँव के सिलसिले हों / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
और जंगल हरे हों
यही शर्त है
खुशबुओं के शहर से
गुज़रते हुए
धूप की घाटियों से
उतरते हुए
दिन शहद से भरें हों
यही शर्त है
एक नीली हवा का
झरोखा मिले
साँवली छाँव के हों
नये सिलसिले
भोर के आसरे हों
यही शर्त है
नीड़ होते रहें
टहनियों के सिरे
फूल हँसते रहें
पत्तियों से घिरे
हाथ मेंहदी-धरे हों
यही शर्त है