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छान डाले उसने परदेसी गगन के रास्ते / ओम प्रकाश नदीम

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छान डाले उसने परदेसी गगन के रास्ते ।
तय न कर पाया मगर अपने वतन के रास्ते ।

आओ बैठें मिल के सोचें कैसे पिघलेगी ये बर्फ़,
मुद्दतों से बन्द हैं आवागमन के रास्ते ।

हौसला हूँ मंज़िलों से पहले की मंज़िल हूँ मैं,
ख़त्म हो जाते हैं मुझ पर सब थकन के रास्ते ।

लग रहा है आज फिर सय्याद<ref>बहेलिया</ref> आएगा कोई,
फिर सजे हैं खैरमकदम<ref>स्वागत</ref> को चमन के रास्ते ।

फ़ासले भी चलते-चलते आख़िरश थक ही गए,
आ के यकजा<ref>एक हो जाना</ref> हो गए गंग-ओ-जमन के रास्ते ।

जिस तरफ़ मुड़ने से भी परहेज़ करते थे ’नदीम’
उस तरफ़ ही जा रहे हैं इल्म-ओ-फ़न<ref>शिक्षा, ज्ञान और कला</ref> के रास्ते ।

शब्दार्थ
<references/>