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छूते ही हो गयी देह कंचन पाषाणों की / भगवत दुबे

छूते ही हो गयी देह कंचन पाषाणों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

खंजन नयनों के नूपुर जब तुमने खनकाए
तभी मदन के सुप्तप पखेरू ने पर फैलाए
कामनाओं में होड़ लगी फि‍र उच्चफ उड़ानों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

यौवन की फि‍र उमड़ घुमड़ कर बरसीं घनी घटा
संकोचों के सभी आवरण हमने दिए हटा
स्वोत: सरकनें लगी यवनिका मदन मचानों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

अधरों से अंगों पर तुमने अगणित छंद लिखे
गीत एक-दो नहीं केलिके कई प्रबन्धन लिखे
हुई निनादित मूक ॠचाएँ प्रणय-पुरोणों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की

कभी मत्स्यगंधा ने पायी थी सुरभित काया
रोमंचक अध्या‍य वही फि‍र तुमने दुहराया
परिमलवती हुईं कलियाँ उजड़े उद्यानों की
है कृतज्ञ धड़कनें हमारे पुलकित प्राणों की