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छू गई वो पुरवाई / उर्मिल सत्यभूषण

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बहुत दिनों के बाद लेखनी आज हाथ में आई
आँखों के नीले नभ में यादों की बदली छाई
किसी अपने ने बार बार
ले लेकर नाम पुकारा
कानों में कविता गूंजी
उर में रसवंती धारा
उसके घर से भाव कपोती मेरे घर तक धाई
प्रथम बार जब कवितामूर्त्ति
श्री देवी को देखा
रश्मि रथ पर थी आरूढ़
वह शरद चन्द्र की लेखा
उस परिचय में युग-युग की परछाईं हमने पाई
जरा जीर्ण उसके तन में
उल्लास पुलकता था
मुक्त हो गई कविता का
मधुहास छलकता था
तापशाप सब हरने वाली छू गई वो पुरवाई
जाने कब का संचित लावा
था जो फूट पड़ा
घनीभूत पीड़ा में कोई
नश्तर आन गड़ा
शब्दों के हिमशिखरों ने कविता की धार बहाई
कविता तेरी हो या मेरी
सेतुबंध लगाती
देशकाल से परे
शांति के, प्रेम के गीत सुनाती
पाट रही है मानव और मानव के बीच की खाई।