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जँ सरिपहुँ रचबाक हो / ललितेश मिश्र

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हत होएबासँ पहिने
हे हमर हतभागिनी कविता
गाउ कोनो राग
कोनो भनिता....
नहि बाँचत आब अहाँक
अस्तित्व ओ मर्यादा !
सत्येक सप्पत ल’
घोषित क’ देलहुँ अछि
हमरालोकनि स्वयंके आब
सत्यक हत्यारा।
थोड़बे रास सुख-सुविधा लेल
‘असत्यमेव जयते’क
सभ केओ
द’ रहल अछि गगनभेदी नारा....

एहि अकाल बेलामे
असंभव बनल उजासक मेलामे
जँ रचबाक हो कोनो राग, कोनो देश
तँ उतारू बन्धु अपन अमानवीय
छोटका-बड़का भेष
जाफना आ सिंध बनैत अपन आँगनमे
झहरए दिऔक मौलश्री आ सिंगरहार
अणु-आयुध नहि होएत रक्षा कवच
खसए दिऔक सद्भावपूरित
हमर-अहाँक आँगनमे शीत जलक ढार
जँ सरिपहुँ रचबाक हो
कोनो देश, कोनो राग।