Last modified on 22 मार्च 2012, at 11:21

जंगलों के पार हो गई / जगदीश चंद्र ठाकुर

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:21, 22 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश चंद्र ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


जंगलों के पार हो गई
मालती विचार हो गई |
आगे अँधेरा था
पीछे अँधेरा था
दृष्टि जिधर जाती थी
हंसता सपेरा था,
देख तार-तार हो गई
मालती विचार हो गई |
तालाब गहरा था
पानी भी ठहरा था
खुद भी तो गूंगी थी
मल्लाह बहरा था,
तैर कर किनार हो गई
मालती विचार हो गई |
रिश्तों का घेरा था
शास्त्रों का फेरा था
पहरा था अन्धों का
हाथ में सबेरा था,
धुंध से फरार हो गई
मालती विचार हो गई |