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जंगलों के पार हो गई / जगदीश चंद्र ठाकुर

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जंगलों के पार हो गई
मालती विचार हो गई |
आगे अँधेरा था
पीछे अँधेरा था
दृष्टि जिधर जाती थी
हंसता सपेरा था,
देख तार-तार हो गई
मालती विचार हो गई |
तालाब गहरा था
पानी भी ठहरा था
खुद भी तो गूंगी थी
मल्लाह बहरा था,
तैर कर किनार हो गई
मालती विचार हो गई |
रिश्तों का घेरा था
शास्त्रों का फेरा था
पहरा था अन्धों का
हाथ में सबेरा था,
धुंध से फरार हो गई
मालती विचार हो गई |