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जंगल का गीत / रमेश रंजक

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बचकर कहाँ चलेगा पगले, चारों ओर मचान है
हर मचान पर एक शिकारी, आँखों में शैतान है !

हवा धूल में बटमारीपन, छाया की तासीर गरम
सरमायेदारों के कपड़े, पहने घूम रहा मौसम
नद्दी-नालों की ज़ंजीरें हरियल टहनीदार नियम
न्यायाधीश पहाड़ मौन हैं, खा-पीकर रिश्वती रकम
सत्ता के जंगल की पत्ती-पत्ती बेईमान है !

चारों ओर अंधेरा गहरा, पहरा है संगीन का
महंगाई ने हाँका मारा, बजा कनस्तर टीन का
जिनको पाँव मिले वे भागे, पंजा पड़ा मशीन का
जहाँ बचाएँ प्राण, नहीं रे ! टुकड़ा मिला ज़मीन का
कहाँ छुपाएँ अंडे-बच्चे हर प्राणी हैरान है !

पहले पूरब फिर पच्छिम में, गोली चली मचान से
दक्खिन थर-थर काँपा, उत्तर चीख़ पड़ा जी-जान से
सिसकी लेकर मध्यम धरती, बोली दबी ज़ुबान से
राम बचाए, राम बचाए, ऐसे हिन्दुस्तान से
लाठी, गोली, अश्रु-गैस, जीना क्या आसान है ?


रचनाकाल : 12 सितम्बर 1975