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जंगल / विजया सती

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मेरी सुबह खो गई है

मेरी शाम खो गई है

और अब

दोपहरी धूप का अम्बार है- मैं हूँ जिसकी कोई पहचान नहीं!


मेरी सादगी खो गई है

मेरी सरलता खो गई है

और अब ढेर-ढेर संशय के तूफ़ान हैं- मैं हूँ जिसकी कोई राह नहीं!


मेरे शब्द खो गए हैं

उनके अर्थ खो गए हैं

और अब गूँजते हुए प्रश्न हैं- मैं हूँ कहीं कोई उत्तर नहीं!


सनसनाता एक जंगल है

जिसमें मैं बिल्कुल खो गई हूँ!