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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
|संग्रह=युगांत / सुमित्रानंदन पंत
}}
{{KKCatKavita}}{{KKPrasiddhRachna}}<poem>::जग -जीवन में जो चिर महान, ::सौंदर्य -पूर्ण औ सत्‍य -प्राण, ::मैं उसका प्रेमी बनूँ , नाथ! जिससे ::जिसमें मानव -हित हो समान!  
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
 छूटे भय-शंसय, संशय, अंध-भक्ति,;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
 मिज मिट जावें जिसमें अखिल व्‍यक्ति!  ::दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा-प्रसार, ::हर भेदभाव भेद-भाव का अंधकार, ::मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ! ::मानव के उर के स्‍वर्ग-द्वार!  
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
 
करने मानव का परित्राण,
 
ला सकूँ विश्‍व में एक बार
 फिर से नव जीवन का विहान।विहान!</poem>रचनाकाल: मई १९३५
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