भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जग के उर्वर आँगन में / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 26: | पंक्ति 26: | ||
दिशि-दिशि में औ’ पल-पल में | दिशि-दिशि में औ’ पल-पल में | ||
बरसो संसृति के सावन! | बरसो संसृति के सावन! | ||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> | ||
+ | रचनाकाल: जून’ १९३० |
16:24, 9 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
जग के उर्वर-आँगन में
बरसो ज्योतिर्मय जीवन!
बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर
हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!
बरसो कुसुमों में मधु बन,
प्राणों में अमर प्रणय-धन;
स्मिति-स्वप्न अधर-पलकों में,
उर-अंगों में सुख-यौवन!
छू-छू जग के मृत रज-कण
कर दो तृण-तरु में चेतन,
मृन्मरण बाँध दो जग का,
दे प्राणों का आलिंगन!
बरसो सुख बन, सुखमा बन,
बरसो जग-जीवन के घन!
दिशि-दिशि में औ’ पल-पल में
बरसो संसृति के सावन!
रचनाकाल: जून’ १९३०