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जग के व्यापार से समभाव हुए हैं / शैलेन्द्र चौहान
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भाव बहुत बेभाव हुए हैं
दिन तो दिन रातों के भी अभाव हुए हैं
कितने अँधियारे कष्टों में काटे
उजियारे कितने अलगाव हुए हैं
अपने-अपने किस्से हर कोई जीता है
औरों के किस्से किससे समभाव हुए हैं
दूर निकल आए जब तक भ्रम टूटे
वक़्त बहुत बीता बेहद ठहराव जिए हैं
नहीं कहूंगा दुख मैं इसको
सुख ने भी कितने घाव दिए हैं
भाव बहुत बेभाव हुए हैं