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जद्दोजहद में ज़िंदगी अपनी गुजार के / राम नाथ बेख़बर

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जद्दोजहद में ज़िंदगी अपनी गुजार के
हारा नहीं हूँ आज भी हर जंग हार के।

कहने लगी है बाग़ में कोकिल पुकार के
हर सिम्त आने वाले हैं मौसम बहार के।

होता अगर जो वश में तो मैं बाँह को पकड़
उस चाँद को ले आता ज़मीं पे उतार के।

गुलशन को लूटने को लुटेरे चले मग़र
वो आ गए हैं जद में फ़क़त चुभते ख़ार के।

दिलवर तुम्हारे कान पे जूँ रेंगती नहीं
थक हार सा गया हूँ मैं तुझको पुकार के।

माना कि बेख़बर मैं रहा ग़म से हर इक दिन
लेकिन मुझे कचोटते हैं दिन वो प्यार के।