भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जनम-ज़िंदगी हाट-लाट से परे रहे वे / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:37, 11 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र }} {{KKCatGhazal}} <poem> जनम-ज़िंदगी हाट-लाट …)
जनम-ज़िंदगी हाट-लाट से परे रहे वे
युग खोटा यह- इसमें भी हैं खरे रहे वे
समझ न पाये दुर्योधन की राजसभा को
भीतर अपने रामराज को धरे रहे वे
संत नहीं थे, फिर भी धूप सभी को बाँटी
सहज नेह से अपने मन को भरे रहे वे
नहीं सजावट बने किसी के नंदनवन के
वे बरगद थे, पतझर में भी हरे रहे वे
अपने जीवट से उनने यह स्वर्ग बनाया
नहीं किसी के भी, साधो, आसरे रहे वे