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"जन्नत की तमन्ना में कोई मरता है / रतन पंडोरवी" के अवतरणों में अंतर

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दीदार हक़ीक़त का वही करता है।
 
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आराम को आलाम का मसदर पाया
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आलाम में आराम को मुज़्मर पाया
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आग़ाज़ में अंजाम की सूरत देखी
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अंजाम में आग़ाज़ का रहबर पाया।
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पीने की तमन्ना है पिला दे साक़ी
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दीवानए-हुशियार बना दे साक़ी
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बढ़ जाये नज़र कोन-ओ-मकां से आगे
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लाहूत के अनवार दिखा दे साक़ी।
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कहते हैं कि हर फेल का फ़ाइल तू है
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मक़तूल अगर कोई है क़ातिल तू है
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या रब ये सज़ा और जज़ा क्या मानी
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जब दहर में हर अमल का आमिल तू है
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हर ज़र्रा को ख़ुर्शीदे-मुनव्वर समझो
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हर क़तरए-नाचीज़ को साग़र समझो
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किस्मत की हक़ीक़त जो समझनी हो 'रतन'
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आमाले-गुज़श्ता को मुक़द्दर समझो
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ज़र्रा पे नज़र डाली तो सहरा पाया
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क़तरे में निहां जल्वए-दरिया पाया
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हर जुज़्व में है कुल की तजल्ली मस्तूर
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बन्दे की जो की खोज तो मैला पाया।
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उल्फ़त की हिकायात को धोखा समझो
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हर रिश्ते को टूटा हुआ रिश्ता समझो।
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हालाते-ज़माना ये बताते हैं 'रतन'
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अपने को भी दुनिया में न अपना समझो।
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ज़ाहिर की महब्बत को फ़साना कहिये
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अल्फाज़े-मुलाइम को बहाना कहिये।
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जब जिस्म भी अपना नहीं अपना हरगिज़
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किस मुंह से यगाने को यगाना कहिये।
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ज़ाहिर में तो तस्वीरे-फ़ना है बंदा
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बातिन में मगर हुस्ने-बक़ा है बंदा
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खुल जाये अगर इस की हक़ीक़त इस लर
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बस फिर तो 'रतन' शाने-ख़ुदा है बंदा।
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हर हाल में मज़बूर हैं दुनिया वाले
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ऐसे में भी मग़रूर हैं दुनिया वाले
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दुश्वार है दुश्वार हुसूले-मक़सद
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मंज़िल से बहुत दूर हैं दुनिया वाले।
  
मरने से हर इंसान को डरते देखा
 
हर वक़्त दुआ जीने की करते देखा।
 
जीना भी तो आसान नहीं है कोई
 
जीने के लिये मौत को मरते देखा।
 
 
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13:08, 13 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

जन्नत की तमन्ना में कोई मरता है
दोज़ख की सज़ाओं से कोई डरता है।
बढ़ जाता है जो इन की हदों से आगे
दीदार हक़ीक़त का वही करता है।

 आराम को आलाम का मसदर पाया
आलाम में आराम को मुज़्मर पाया
आग़ाज़ में अंजाम की सूरत देखी
अंजाम में आग़ाज़ का रहबर पाया।




पीने की तमन्ना है पिला दे साक़ी
दीवानए-हुशियार बना दे साक़ी
बढ़ जाये नज़र कोन-ओ-मकां से आगे
लाहूत के अनवार दिखा दे साक़ी।

कहते हैं कि हर फेल का फ़ाइल तू है
मक़तूल अगर कोई है क़ातिल तू है
या रब ये सज़ा और जज़ा क्या मानी
जब दहर में हर अमल का आमिल तू है

हर ज़र्रा को ख़ुर्शीदे-मुनव्वर समझो
हर क़तरए-नाचीज़ को साग़र समझो
किस्मत की हक़ीक़त जो समझनी हो 'रतन'
आमाले-गुज़श्ता को मुक़द्दर समझो

ज़र्रा पे नज़र डाली तो सहरा पाया
क़तरे में निहां जल्वए-दरिया पाया
हर जुज़्व में है कुल की तजल्ली मस्तूर
बन्दे की जो की खोज तो मैला पाया।

उल्फ़त की हिकायात को धोखा समझो
हर रिश्ते को टूटा हुआ रिश्ता समझो।
हालाते-ज़माना ये बताते हैं 'रतन'
अपने को भी दुनिया में न अपना समझो।

ज़ाहिर की महब्बत को फ़साना कहिये
अल्फाज़े-मुलाइम को बहाना कहिये।
जब जिस्म भी अपना नहीं अपना हरगिज़
किस मुंह से यगाने को यगाना कहिये।

ज़ाहिर में तो तस्वीरे-फ़ना है बंदा
बातिन में मगर हुस्ने-बक़ा है बंदा
खुल जाये अगर इस की हक़ीक़त इस लर
बस फिर तो 'रतन' शाने-ख़ुदा है बंदा।

हर हाल में मज़बूर हैं दुनिया वाले
ऐसे में भी मग़रूर हैं दुनिया वाले
दुश्वार है दुश्वार हुसूले-मक़सद
मंज़िल से बहुत दूर हैं दुनिया वाले।