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नीति-न्याय अधिकार गये थे कुचले बल के द्वारा
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'करूँ भविष्यत् की चिंता क्यों जो अजान, अश्रुत है!
मुझको एक चरण अगला ही दिखता रहे, बहुत है
आज दिये की लौ-सा वह मुझको दिखलाई पड़ता
धिक् जीवन जो अपमानों में सुख की सेज बिछाये
स्वाभिमान-स्वातंत्र्य-रहित वैकुण्ठ नहीं अच्छा है
प्रोमिथियस मुक्तात्म सुलगता रहे, कहीं अच्छा है
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'पशुबल के सम्मुख आत्मा की शक्ति जगानी होगी
मुझे अहिंसा से हिंसा की आग बुझानी होगी
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'प्रेम सृष्टि का मूल धर्म, चेतन का नियम सनातन
इसके कारण ही विनाश से बचा आज तक जीवन
यदि धारा बहती न प्रेम की जननी के अंतर में
छोड़ूँगा न इसे ईसा-सा सूली भले चढूँगा
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'जिनपर मेरा सतत नियंत्रण रहें विमल वे साधन
साध्य अभिन्न सदा उनसे, जिस तरह कार्य से कारण
व्यर्थ लक्ष्य का सोच, सही पथ, गति यदि सुदृढ़ चरण में
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